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कहावत है — “डूबते सूरज को कौन प्रणाम करता है”, पर बिहार की माटी में यह कहावत अपना अर्थ खो देती है। यहाँ की आस्था इतनी अटूट, इतनी गहरी है कि जब डूबते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, तब लगता है मानो भक्ति का सागर उमड़ पड़ा हो। छठ पर्व केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि जीवन, प्रकृति और विश्वास का उत्सव है — ऐसा पर्व जो हर हृदय में ऊर्जा और श्रद्धा का संचार करता है।
छठ की शुरुआत बिहार के औरंगाबाद जिले से मानी जाती है। धीरे-धीरे यह लोकपर्व सीमाओं को लांघता हुआ आज राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना चुका है। अमेरिका, कनाडा, मॉरीशस, नेपाल, फिजी और खाड़ी देशों तक छठ की भव्यता गूंजती है। यह अब केवल बिहार या उत्तर भारत का पर्व नहीं रहा, बल्कि भारतीय संस्कृति और सनातन परंपरा का वैश्विक प्रतीक बन चुका है।
छठ पर्व सूर्य की उपासना का पर्व है। सूर्य न केवल प्रकाश के प्रतीक हैं, बल्कि जीवन के स्रोत भी हैं। जब छठव्रती तीसरे दिन की संध्या में नदियों या तालाबों के पवित्र जल में खड़ी होकर अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देती हैं, तो पूरा वातावरण भक्ति से भर जाता है। उस समय डूबते सूर्य की किरणें जब लहरों पर पड़ती हैं, तो ऐसा लगता है मानो आस्था का स्वयं प्रकाश फैल रहा हो। लाखों की संख्या में श्रद्धालु महिलाएं साड़ी में सिर ढंके, हाथ जोड़कर, दूध और गंगाजल से अर्घ्य देती हैं। पीछे से बजते छठ गीत, “केलवा जे फरेला घवद से…” की मधुर धुन वातावरण को भाव-विभोर कर देती है।
फिर अगली सुबह जब उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, तब हर आंख में नई उम्मीद, नया उजाला और नया जीवन उतर आता है। इस पूरे अनुष्ठान में सूर्य के प्रति कृतज्ञता प्रकट की जाती है — उस शक्ति के प्रति जो इस सृष्टि को चलाती है। वैज्ञानिक दृष्टि से भी सूर्य ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत है। पृथ्वी सहित सारे ग्रह उसी के गुरुत्वाकर्षण से बंधे हैं, और जीवन उसी की ऊष्मा से संभव है। छठ पर्व इसी सत्य का आध्यात्मिक रूप है — जहाँ विज्ञान और आस्था एक साथ खड़े नजर आते हैं।
छठ का प्रसाद भी प्रकृति के प्रति आदर को दर्शाता है। इसमें केवल शुद्ध, प्राकृतिक और सात्त्विक वस्तुएं जैसे ताजे फल, गुड़, ठेकुआ, चावल, और हरी सब्जियां अर्पित की जाती हैं। इसमें न कोई मांसाहार, न मसाला, न कृत्रिमता। यह पर्व सादगी, शुद्धता और अनुशासन का प्रतीक है। व्रती पूरे चार दिनों तक संयम, तप और भक्ति का पालन करते हैं। नदी या तालाब के किनारे पूजा करना इस बात का संकेत है कि हमारी संस्कृति में प्रकृति केवल पूज्य नहीं, बल्कि जीवन का अभिन्न हिस्सा है।
छठ में सामाजिक समरसता भी देखने को मिलती है। यहाँ जाति, धर्म, भाषा या वर्ग का कोई भेद नहीं रहता। सभी एक साथ मिलकर घाट सजाते हैं, गीत गाते हैं, और व्रतियों की सेवा करते हैं। यह पर्व हमें सिखाता है कि आस्था सबसे बड़ी शक्ति है — वह जो सीमाओं को मिटाकर मानवता को जोड़ती है।

सच कहा जाए तो छठ केवल एक पूजा नहीं, बल्कि भारतीय नारी की शक्ति, त्याग और श्रद्धा का ज्वलंत उदाहरण है। वह बिना कुछ मांगे केवल अपने परिवार, समाज और संपूर्ण सृष्टि के कल्याण के लिए व्रत रखती है। यह आस्था का वह उजाला है जो डूबते सूरज को भी नए अर्थ देता है।
इसलिए कहा जा सकता है —
छठ केवल सूर्य की उपासना नहीं, बल्कि जीवन, प्रकृति और मानवता की साधना है।
जब डूबते सूरज को प्रणाम किया जाता है, तब यह प्रमाणित होता है कि जहां सच्ची आस्था होती है, वहां अंधेरा भी उजाला बन जाता है।
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