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हिरासत में युवक की मौत: हाईकोर्ट का सख्त रुख, 2 लाख मुआवजे का आदेश

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बिलासपुर। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने हिरासत में एक युवक की संदिग्ध मौत को गंभीरता से लेते हुए इसे संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन के अधिकार) का उल्लंघन माना है। अदालत ने इस मामले को मानवाधिकार हनन की श्रेणी में रखते हुए मृतक की मां को दो लाख रुपये मुआवजा, 9 प्रतिशत वार्षिक ब्याज सहित 8 सप्ताह के भीतर देने का आदेश दिया है।

हाईकोर्ट की यह सख्त टिप्पणी मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति बीडी गुरु की डिवीजन बेंच द्वारा की गई, जिसमें यह स्पष्ट कहा गया कि जब जीवन का अधिकार छीना जाता है, तो आर्थिक क्षतिपूर्ति अनिवार्य हो जाती है।

क्या है मामला?

कोरबा जिले के दर्री निवासी 27 वर्षीय सूरज हथेल को पुलिस ने 20 जुलाई 2024 को विभिन्न धाराओं के तहत हिरासत में लिया था। उसी सुबह करीब 5 बजे सूरज की तबीयत बिगड़ने पर उसे अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया।

मृतक के परिजनों ने पुलिस पर मारपीट और यातना का आरोप लगाया और मामले की निष्पक्ष जांच की मांग की। इसके बाद सूरज की मां प्रेमा हथेल ने अधिवक्ता अंशुल तिवारी के माध्यम से हाईकोर्ट में याचिका दायर की।

पोस्टमार्टम रिपोर्ट और विरोधाभास

याचिकाकर्ता के वकील ने अदालत को बताया कि भले ही न्यायिक जांच रिपोर्ट में सूरज की मौत का कारण मायोकार्डियल इंफेक्शन बताया गया है, लेकिन पोस्टमार्टम रिपोर्ट में उसके शरीर पर कई चोटों और फ्रैक्चर के स्पष्ट संकेत मिले हैं।

सीएसपी भूषण एक्का द्वारा दायर शपथपत्र में कहा गया कि चोटें सूरज के “रेलवे लाइन पर गिरने” से आई हैं, लेकिन अदालत ने इसे अविश्वसनीय और असंगत माना। मृतक की तस्वीरों में गंभीर चोटों के साफ संकेत मिले, जो पुलिस की थ्योरी पर सवाल उठाते हैं।

न्यायपालिका की टिप्पणी

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कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इस प्रकार की हिरासत में मौतें लोकतंत्र और कानून व्यवस्था पर सीधा हमला हैं। अदालत ने कहा:

“यह स्थापित कानून है कि जब मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है, तो आर्थिक मुआवजा देना न्याय का हिस्सा है। ऐसे मामलों में जवाबदेही सुनिश्चित करना आवश्यक है, ताकि किसी भी अधिकारी को भविष्य में इस प्रकार के कृत्य के लिए प्रोत्साहन न मिले।”

कोर्ट ने पुलिस या जेल अधिकारियों के ऐसे अनैतिक और अमानवीय व्यवहार की कड़ी निंदा करते हुए कहा कि यह मामला केवल सूरज हथेल की मौत तक सीमित नहीं है, बल्कि यह मानव गरिमा और मौलिक अधिकारों की रक्षा का सवाल भी है।

निष्कर्ष

हाईकोर्ट के इस फैसले से स्पष्ट संकेत जाता है कि हिरासत में मानवाधिकारों का उल्लंघन सहन नहीं किया जाएगा। यह फैसला उन सभी मामलों के लिए नजीर बन सकता है, जहां पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों को नजरअंदाज किया जाता रहा है।


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