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सोने-चाँदी नहीं, बच्चों की वापसी बनी हमारी असली धनतेरस

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— डॉ. एस. के. मिश्रा

धनतेरस की भोर थी। आसमान में हल्की गुलाबी रोशनी तैर रही थी, और पूरे मोहल्ले में उत्सव की सुगंध घुली हुई थी। बाजारों में चाँदी की खनक और दीयों की झिलमिलाहट थी, लेकिन हमारे घर की प्रतीक्षा किसी और चीज़ की थी — अपने बच्चों की।

सुबह जैसे ही दरवाज़े पर दस्तक हुई, दोनों बच्चे मुस्कुराते हुए भीतर आए। वह दृश्य किसी स्वर्णाभूषण से अधिक चमकदार था। आँखों में नमी थी, होंठों पर मुस्कान — और दिल में बस एक ही भाव, “यही तो हमारी सच्ची धनतेरस है।” उस क्षण लगा, वर्षों की थकान मिट गई हो।

घर की रसोई से आती मिठाइयों की खुशबू अब और भी मीठी लग रही थी। बरामदे में जलते दीप जैसे साक्षात कह रहे थे — “आज हमारे अर्थ पूरे हुए हैं।” माँ के हाथों से बने पकवान, पिता के चेहरे पर सुकून, और बच्चों की खिलखिलाहट — सब मिलकर ऐसा माहौल बना रहे थे, जहाँ रिश्ते स्वयं दीपों की तरह जगमगा रहे थे।

धनतेरस पर जहाँ लोग सोना-चाँदी खरीदकर लक्ष्मी का स्वागत करते हैं, वहीं हमारे लिए इस बार की लक्ष्मी वही दो मुस्कुराते चेहरे थे, जिन्होंने आकर आँगन की रौनक लौटा दी। यह एहसास ही सबसे बड़ा धन था — वह धन जो बैंक में नहीं, दिलों में जमा होता है।

शाम ढली तो आँगन दीपों से सज उठा। बच्चों ने हँसी-ठिठोली के बीच दीप जलाए, माँ ने आरती उतारी, और पिता ने कहा — “इस बार तो सच में घर धन्य हो गया।” दीपक की लौ में उस दिन सिर्फ घी नहीं, प्रेम और अपनापन जल रहा था।

सच है — सोने-चाँदी की चमक समय के साथ फीकी पड़ जाती है, पर बच्चों की मुस्कान की रोशनी जीवनभर मन को प्रकाशित रखती है। यही है हमारी असली समृद्धि, यही हमारी सच्ची धनतेरस।


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