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श्री तोखन साहू- “छत्तीसगढ़ के रोम-रोम और कण-कण में बसे हैं प्रभु श्री राम”

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श्री रामचरित मानस पाठ में भागीदारी

केन्द्रीय आवासन एवं शहरी कार्य राज्य मंत्री श्री तोखन साहू ने आज बिलासपुर के रामावैली आवासीय सहकारी समिति द्वारा श्री राम मंदिर प्रांगण में आयोजित श्री राम चरित मानस – अखण्ड रामायण पाठ में भाग लिया। इस अवसर पर उन्होंने प्रभु श्री रामचन्द्र से आशीर्वाद लिया और देशवासियों की सुख-समृद्धि की कामना की।

छत्तीसगढ़ में प्रभु श्री राम का गहरा संबंध

श्री साहू ने श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए कहा, “छत्तीसगढ़ के कण-कण और रोम-रोम में प्रभु श्रीराम बसे हैं। वनवास के दौरान भगवान श्रीराम ने 14 वर्षों में से 10 साल छत्तीसगढ़ में ही बिताए। यहां की धरती पर उन्होंने नंगे पैर यात्रा की है। इस भूमि का अत्यधिक महत्व है, क्योंकि यह भगवान राम की लीलाओं को समेटे हुए है। श्रीराम दंडकारण्य (वर्तमान बस्तर) सहित अन्य कई स्थानों पर निवास करते हुए ऋषि-मुनियों से शिक्षा ली और असुरों का संहार किया। आज भी छत्तीसगढ़ के वनांचल क्षेत्रों में प्रभु श्रीराम के वनवास काल की यादें बिखरी हुई हैं। इन स्मृतियों को संजोने का प्रयास किया जा रहा है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि छत्तीसगढ़ की कण-कण और रोम-रोम में श्रीराम बसे हुए हैं।”

राम का हमारे दैनिक जीवन में महत्व

श्री साहू ने आगे कहा, “राम हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। हमारे गांवों में व्यक्ति सुबह उठते ही ‘राम-राम’ कहते हैं, किसी से मिलते समय शिष्टाचार में ‘जय श्रीराम’ बोलते हैं, और यहां तक कि जब धान को काठा में नापते हैं तो भी ‘राम-राम’ कहते हैं। श्रीराम हमारे पूरे संस्कार और संस्कृति का हिस्सा हैं।”

छत्तीसगढ़ में श्रीराम को भांजा क्यों माना जाता है

उन्होंने यह भी बताया कि छत्तीसगढ़ में प्रभु श्रीराम को ‘भांजा’ माना जाता है। श्री साहू ने कहा, “पूरे देश में शायद छत्तीसगढ़ ही ऐसा राज्य है, जहां लोग अपने भांजे के पैर छूकर प्रणाम करते हैं। कहते हैं कि दक्षिण कोसल श्रीराम का ननिहाल था, इसलिए उन्हें समूचे छत्तीसगढ़ का भांजा माना जाता है और यहां के लोग उन्हें श्रद्धा पूर्वक प्रणाम करते हैं। यह परंपरा पूरे प्रदेश में प्रचलित है।”

श्रीराम की उपासना और संस्कृति में उनका योगदान

श्री साहू ने यह भी स्पष्ट किया कि श्रीराम की उपासना और उनकी लीला छत्तीसगढ़ के लोगों की जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा है और यह परंपरा सदियों से चली आ रही है।


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