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मध्यस्थता के निर्णय में हाईकोर्ट का सीमित हस्तक्षेप

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हाईकोर्ट: मध्यस्थता के साक्ष्य और निर्णय को नकारा नहीं जा सकता

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने मध्यस्थता से जुड़े एक मामले में महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा है कि कोर्ट मध्यस्थ के साक्ष्य का पुनर्मूल्यांकन नहीं कर सकता और न ही अपने निर्णय को मध्यस्थ के निर्णय पर वरीयता दे सकता है।

हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच ने एक मध्यस्थ निर्णय को बहाल करते हुए स्पष्ट किया कि मध्यस्थ न्यायाधिकरण साक्ष्य का विशेषज्ञ होता है और इसमें न्यायालयीय हस्तक्षेप की गुंजाइश अत्यंत सीमित है।


मामले का संदर्भ

यह विवाद साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (एसईसीएल) के कपिलधारा प्रोजेक्ट के लिए संपर्क मार्ग निर्माण से संबंधित था। अपीलकर्ता एमएसएसके मिनरल्स, एक पंजीकृत ठेकेदार फर्म, ने ठेका निरस्त किए जाने के खिलाफ आर्बिट्रेशन और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 37 के तहत अपील दायर की थी।

  • विवाद का मुख्य कारण परियोजना निर्माण में हुई देरी थी, जिसे भारी बारिश और वन स्वीकृति में देरी जैसी परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार ठहराया गया।
  • परियोजना 30 अप्रैल 1995 को पूरी हो गई, लेकिन अंतिम भुगतान में विवाद के चलते मध्यस्थता की कार्यवाही शुरू की गई।

मध्यस्थ अधिकरण ने अपीलकर्ता के पक्ष में फैसला देते हुए एसईसीएल को क्षतिपूर्ति राशि ब्याज सहित देने का निर्देश दिया।


समय सीमा और न्यायालयीय हस्तक्षेप पर चर्चा

प्रमुख कानूनी प्रश्न:
क्या अपीलकर्ता के दावे समय सीमा से बाहर हैं?

  • प्रतिवादी एसईसीएल का तर्क:
    परियोजना पूरी होने के 11 साल बाद दावे प्रस्तुत किए गए, जो समय सीमा के उल्लंघन के कारण अमान्य होने चाहिए।
  • हाईकोर्ट का निर्णय:
    हाईकोर्ट ने वाणिज्यिक न्यायालय के आदेश को पलटते हुए मध्यस्थ निर्णय को बहाल किया। कोर्ट ने माना कि मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य विशेषज्ञता पर आधारित हैं, और न्यायालयीय हस्तक्षेप की गुंजाइश केवल धारा 34 के तहत धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार, या सार्वजनिक नीति के उल्लंघन तक सीमित है।

मध्यस्थता निर्णय: न्यायालय का निष्कर्ष

हाईकोर्ट ने अपने फैसले में दोहराया:

  1. मध्यस्थ न्यायाधिकरण के साक्ष्य और निर्णय को खारिज करना न्यायिक प्रक्रिया के सिद्धांतों के विपरीत है।
  2. मध्यस्थता के दायरे में न्यायालय केवल गंभीर अनियमितताओं पर ही हस्तक्षेप कर सकता है।

न्यायिक दृष्टिकोण का महत्व

यह फैसला मध्यस्थता प्रणाली को न्यायिक प्रक्रिया से स्वतंत्रता प्रदान करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि मध्यस्थता के क्षेत्र में न्यायालय का हस्तक्षेप केवल अपवादस्वरूप होना चाहिए, जिससे विवाद समाधान प्रक्रिया को तेज और प्रभावी बनाया जा सके।


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